नेपाल-भारत सीमा संवाददाता जीत बहादुर चौधरी की रिपोर्ट

काठमाण्डौ,नेपाल – अछाम जिला के कमलबाजार नगर पालिका-6 की 57 वर्षीय धना शाही कुछ साल पहले तक खुद को बहलाने का बहाना तलाश रही थीं। घर के काम-काज निपटाने के बाद खाली समय में उनके पास खालीपन के अलावा कुछ नहीं बचता था। उनके तीन बेटे-बहू और दो बेटियां काम करने के लिए भारत चली गई हैं।
तीनों पोते-पोतियों के स्कूल चले जाने के बाद उनके पास बात करने के लिए कोई नहीं था। ऐसे समय में उनका दोस्त उनकी बेटी द्वारा भारत से भेजा गया मोबाइल फोन बन गया है।
धना को अपना नाम लिखना भी नहीं आता। अगर उन्हें कहीं दस्तखत करने हों तो उनके पास लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन मोबाइल फोन चलाने का हुनर नहीं है। 10 साल पहले पति की मौत के बाद अकेली हो चुकी धना को लगता है कि जब वह अकेली होती हैं तो मन ही मन बातें करती हैं। जब उनके पास मोबाइल फोन होता है तो उनका मन भूल जाता है।
5 साल पहले बेटी ने जो मोबाइल फोन भेजा था, जब उसे मिला तो उसे इस बात की चिंता थी कि इसका इस्तेमाल कैसे करना है। उसे डर था कि कहीं चोट न लग जाए। शुरुआती दिनों में पोती ने सिखाया तो मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की आदत पड़ गई। धाना ने बताया, ‘मैं यूट्यूब, फेसबुक, टिकटॉक देखती हूं। देखते-देखते दिन कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता।’
मोबाइल फोन मिलने के बाद धाना को ऐसा लगता है कि मानो पूरी दुनिया उसके साथ है। यूट्यूब और फेसबुक पर कई वीडियो देखकर उसे लगने लगा है कि दुनिया में ऐसे लोग भी हैं, जो उसकी तरह तकलीफ में हैं। उसने बताया, ‘ऐसा लगता है कि यह मेरी अपनी कहानी है।’
चूंकि वह पढ़ नहीं सकती, इसलिए वह अपने नाती-नातिन द्वारा अपने कॉल लॉग में सेव किए गए रिश्तेदारों की फोटो देखकर फोन और वीडियो कॉल करती है। वह कहती है, ‘ऐसा लगता है कि मेरे दूर रहने वाले बच्चे मेरे साथ हैं। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसा समय आ गया है।’
मंगलसेन नगर पालिका-7 की 62 वर्षीय मनसारा नेपाली की कहानी धाना से मिलती-जुलती है। पिछले दो सालों से उनकी उंगलियां एंड्रॉयड मोबाइल फोन की स्क्रीन पर टिकी हुई हैं। उनके बेटे और बहुएं सभी भारत में हैं। वे घर पर अपने दो पोते-पोतियों की देखभाल कर रही हैं। 7 साल पहले पति की मौत के बाद से वे अकेली हैं। बेटे और बहुओं के विदेश चले जाने के बाद उनके घर के पास के खेत भी बंजर हो गए हैं। पोते-पोतियों के स्कूल जाने के बाद उन्हें घर में खालीपन सा महसूस होता है। इसलिए यह मोबाइल फोन उनका दोस्त बन गया है।
उनके गांव में इंटरनेट का अच्छा इस्तेमाल नहीं होता। दोपहर में वे वार्ड नंबर 7 के ऑफिस जाती हैं। वहां नेपाल टेलीकॉम का नेटवर्क ठीक से काम करता है। ‘किसी को मोबाइल फोन में पैसे डालना भी नहीं आता। मेरे बेटे और बहुएं बंबई से डालते हैं। मैं यहां के पढ़े-लिखे लोगों से एक महीने का डेटा पैक मांगती हूं। जहां नेटवर्क काम करता है, वहां आकर देखती हूं। रात में डाउनलोड किए गए वीडियो देखती हूं,’ उन्होंने हंसते हुए कहा।
मोबाइल फोन के साथ उन्हें ऐसा लगता है कि दुनिया उनके साथ है। उन्हें लगता है कि उन्हें देश-दुनिया की सारी खबरें पता हैं। लेकिन गांव में नेटवर्क ठीक से काम नहीं करता, इससे उन्हें चिढ़ होती है। यही वजह है कि जनप्रतिनिधि या अन्य लोगों से मिलते ही वह गांव में इंटरनेट न होने की शिकायत करती हैं। वह कहती हैं, ‘अगर गांव में इंटरनेट होता तो बहुत आसानी होती। लेकिन हमारी कोई सुनता ही नहीं।’
मंगलसेन-7 निवासी 77 वर्षीय मंगल बहादुर नेपाली ने अपना अधिकांश जीवन भारत में काम करते हुए बिताया। अब उनके तीनों बेटे काम की तलाश में उनके नक्शेकदम पर चल पड़े हैं। वह अपना बुढ़ापा घर पर ही बिता रहे हैं।
जब वह भारत में थे, तो अपना नाम भी नहीं लिख पाते थे, इसलिए लोगों से पत्र लिखवाते थे। वह अपने बेटों को सटीक समाचार भेजते थे। उन्हें अपने घर की खबरें भी महीनों बाद पत्रों के माध्यम से मिलती थीं। उन दिनों वह कभी पत्र लिखने वाले की तलाश में घूमते रहते थे, तो कभी पत्र पढ़ने वाले की तलाश में। वह कहते हैं, ‘जब दूसरे लोग उन्हें पत्र लिखते थे, तो अपने अंदाज में लिखते थे। उनसे पत्र लिखने के लिए कहने की भावना को कौन कैद कर सकता है? मैं अपने मन की बात लिखना चाहता था। लेकिन यह संभव नहीं था।’
8 साल पहले पत्नी के गुजर जाने के बाद उन्हें लगा कि वे अकेले बुढ़ापा कैसे बिताएंगे। घर पर छोटी बहू और चार पोते-पोतियां होने के बावजूद वे अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते थे। ऐसे समय में उनका दोस्त उनका मोबाइल फोन होता था।
उन्हें पत्र पढ़ना नहीं आता था और वे फोटो देखकर दामाद और रिश्तेदारों को फोन करते थे। वे सुख-दुख साझा करते थे। मंगल कहते हैं, ‘पत्रों के दिन बीते जमाने की कहानी जैसे लगते हैं।’
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