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श्री हनुमान चालीसा : भावार्थ और गूढार्थ की गहनता पर प्रकाश

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पं वेद प्रकाश तिवारी ज्योतिष एवं हस्तरेखा विशेषज्ञ
निशुल्क परामर्श उपलब्ध 9919242815

श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ सहित)

महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥ (3)

अर्थ :- हे महावीर बजरंगबली! आप तो विशेष पराक्रम वाले है।
आप दुर्बुद्धि को दूर करते हैं और अच्छी बुद्धिवालों के सहायक है।

गूढार्थ :- तुलसीदासजी लिखते हैं हनुमानजी कैसे हैं?

‘महावीर बिक्रम बजरंगी’ हनुमानजी वीरता की साक्षात् प्रतीमा एवं शक्ति तथा बल पराक्रम की जीवंत मूर्ति है।

भारतीय मल्लविद्या के ये ही परमाराध्य इष्ट है, आप कभी अखाडों मे जायँ तो वहाँ आपको किसी दिवाल के आले में या दिवालपर महावीर की प्रतीमा अवश्य मिलेगी।
उनके चरणों का स्पर्श और नामस्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य प्रारंभ करते है।

जिसमें पांच प्रकार की वीरता हो उसे वीर कहते हैं जैसे:-
त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो विचक्षण:।
दानवीरो रणवीरो पंचैते वीर लक्षण:॥

जो र्बाह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे वीर कहते हैं, और जो अंतर्बाह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे महावीर कहते हैं।

हनुमानजी ने मन के अंदर रहे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि शत्रुओंपर विजय प्राप्त की थी इसलिए उन्हे महावीर कहते हैं।

वीरता में हनुमानजी की कोई तुलना नहीं, यही कारण है कि भारत सरकार भी सर्वोत्कृष्ट वीरता पूर्ण कार्य के लिये ‘महावीर चक्र’ नामक स्वर्ण पदक ही प्रदान करती है।

महाभारत के इतिहास के सर्वाेत्कृष्ट योद्धा अर्जुन ने अतुल पराक्रम के कारण ही हनुमानजी को अपने रथ की ध्वजा पर स्थान दिया था।

भक्ति में बुद्धि होना जरुरी है, तत्वज्ञान में भी बुद्धि की आवश्यकता है।
जिसके जीवन में, भाव में, कर्म में, भक्ति में और तत्वज्ञान में बुद्धि प्रथम है, वह बुद्धिमान पुरुष श्रेष्ठ है।

हनुमानजी बुद्धिमान पुरुषश्रेष्ठ है, ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’
इसीलिए तुलसीदासजी लिखते है, ‘महावीर विक्रम बजरंगी।’

जीवन के बारे में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, मै कौन हूँ, किसलिए हूँ, मुझे क्या करना चाहिए, कहाँ जाना चाहिए?
इन सारे प्रश्नों का जवाब जिसकी आँखों के सामने है वह सुशिक्षित है।

केवल किसी विषय पर पी.एच.डी. करने से सुशिक्षित नहीं बना जाता।

एक दिन कुछ पढे लिखे लोग घुमने निकले, घुमते-घुमते वे समुद्र के किनारे आये, वहाँ एक नाँव मे बैठकर बीच समुद्र में सैर करने गये।

नाँव मे बैठे तीनों पढे लिखे थे, मगर नाँव चलाने वाला अनपढ था।

उन तीनों मे से एक आदमी ने नाविक से पूछा; ‘शिवाजी को जानते हो?

उस नाविक ने कहा, मुझे पता नहीं, शिवाजी कौन है।

उस पढे लिखे भाई ने कहा तुझे इतना इतिहास भी पता नहीं है, तो तेरा जीवन व्यर्थ है, ‘वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम्।’

नांव मे बैठै तीनों मे से दूसरा आदमी अंग्रेजी का प्राध्यापक था, उसने नाविक से पूछा शेक्सपियर को जानते हो?

उसने जवाब दिया आपने जो शब्द कहा वह मै पहली बार सुन रहा हूँ तो आपको क्या जवाब दूँ?

उसने कहा मनुष्य जन्म लेकर तुझे इतना भी पता नही है तो तेरा जीवन व्यर्थ है।

इस प्रकार एक एक पंडित ने उसे प्रश्न पुछे, परन्तु वह जवाब न दे सका।
अत: उसे अशिक्षित ठहराकर उसका जीवन व्यर्थ है ऐसा कह दिया।

नाविक भी क्या बोलता, क्योंकि उसके सामने सारे पंडित थे, नाविक को लगा कि, ‘इन सारे लोगों का जीवन सफल, मेरा जीवन व्यर्थ है।’

इतने मे आकाश में मेघ गर्जना होनेे लगी, चारों तरफ हवाएँ बहने लगी।
तुफान आने लगा, अत: नाव डगमगाने लगी नाविक ने पतवार छोड दी।

नांव मे बैठे पंडित घबराने लगे, उन्होने कहा, ‘तुम पतवार मत छोडो, नहीं तो अभी नांव डूब जाएगी।’

नाविक ने कहा, ‘तुम पतवार पकडो’, उन तीनों ने कहा, ‘हमे पतवार पकडना, नांव चलाना नहीं आता।’

नाविक ने कहा, ऐसा! तो जगत में ऐसा कुछ है जो तुम्हे नहीं आता और आज तुम्हे वह नहीं आता तो तुम्हारा जीवन डुबा समझों।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे यहाँ पढे लिखे लोग अपने को काफी बडा मानते है मगर कई बाते हमेे भी मालूम नहीं होती।

जो शिक्षण हमें समझाता है कि मै कौन हूँ, जीवन में क्या करना है?
जगदीश के पास जाना है तो कैसे जाना है, उससे कैसे मिल सकते है?

भगवान का साथी कैसे बन सकते हैं इन सारी बातों को जो समझाता है वही सच्चा ज्ञान है।
यह ज्ञान जिसके पास है वह सच्चा ज्ञानी है, वही पुरुषश्रेष्ठ है।

हनुमानजी सच्चे ज्ञानी हैे इसलिए उन्हे तुलसीदासजी ने ‘ज्ञानीनामग्रगन्यम्’ कहा है।

हनुमानजी पुरुषश्रेष्ठ है, इसीलिए तुलसीदासजी ने उन्हे, ‘महावीर विक्रम बजरंगी’ ऐसा कहा है।

“कुमति निवार सुमति के संगी”

जैसा संग होगा वैसा मनुष्य बनता है, इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारी कुमति को हटाकर हमें सुमति प्रदान कीजिए इसका तात्पर्य यह है कि संग का जीवन में महत्व है, सत्संग से मनुष्य को सुयोग्य मोड मिलता है और जीवन बदलता है।

बुद्धि खराब होने से समस्त दुष्कर्म बनते हैं, तुलसीदासजीने रामचरितमानस में भी लिखा है:-

जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना।
जहाँ कुमति तहाँ विपति निदाना॥ (मानस 5.40.3)

इसलिए साधु संग की महिमा गायी गयी है।

किसके साथ संबंध जोडना है यह स्वयं मनुष्य को निश्चित करना चाहिए कारण संगति का जीवन पर परिणाम होता है।

तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘कुमति निवार सुमति के संगी’ मति याने मनन करने की शक्ति, यह शक्ति भगवान ने हमें दी है।

तुलसीदासजी के लिखने आशय यही है कि हमे हनुमानजी से प्रार्थना करनी चाहिए की हमे सुमति दे, अच्छी बुद्धि प्रदान करें जो प्रभु कार्य में सहायक हो।

नोट:- प्रस्तुत लेख में शब्दों की अवधि अवश्य कुछ अधिक हो सकती है, किन्तु प्रस्तुत लेख हम सभी के लिए बहुत ही उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक है…

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